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Dattatreya Jayanti 2017 : Sunday, 3 December

The four dogs of Lord Dattatreya are the embodiments of the four Vedas. They follow the Lord as "hounds of heaven, watchdogs of the ultimate Truth". They help the Lord in "hunting" and finding pure souls, wherever they may be born. Behind the Lord Dattatreya is the cow named Kamadhenu. This divine cow grants the wishes and desires of all those who seek the Lord. She grants all material and spiritual wishes of the Lord's devotees.

The Lord stands in front of the Audumbara tree. This is the celestial wish -yielding tree. It fulfills the wishes of those who prostrate before it. Audumbara is the bearer of nectar, and wherever it is found, Lord Dattatreya is always found in it's shade.

महायोगीश्वर दत्तात्रेयजी भगवान्‌ विष्णुके अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष पूर्णिमाको प्रदोषकाल में हुआ था। अत: इस दिन बडे समारोहसे दत्तजयन्तीका उत्सव मनाया जाता है ।

श्रीमद्‍ भागवत्‌ महापुराण के अनुसार श्री दत्तात्रेय सती अनसूया के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । श्री दत्तात्रेय ‘भारतीय अद्वैत साधना’ के इतिहास में अवधूत प्रवर, आदिगुरु, परमहंस के रुप में चिर प्रसिद्ध हैं। शास्त्रों के अनुसार, वे ‘अविनाशी-विग्रह’ तथा सिद्धदेह सम्पन्न हैं । गुरु परम्परा का उच्छेद होने के कारण जब सारी श्रुतियां लुप्तप्राय हो गई थीं, उस समय इन्होंने अपनी अलौकिक स्मृति-शक्ति द्वारा वैदिक धर्म की रक्षा के लिये सभी लुप्तप्राय श्रुतियों का उद्धार करने के दृष्टि से अत्रि मुनि के पुत्र के रुप में सती अनसूया देवी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया था। ब्रह्मपुराण, हरिवंश पुराण, महाभारत एवं विष्णु धर्मोत्तर पुराण में विष्णु द्वारा दत्तात्रेय का रुप धारण करके धर्म और समाज की स्थापना करने का वर्णन मिलता है।

पुराणों के अनुसार महर्षि अत्रि के तीन पुत्र क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के अवतार थे, जिनमें सोम ब्रह्मा के, दत्त विष्णु के और दुर्वासा रुद्र के अवतार थे। उत्तरकाल के आचार्यों ने ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र के समष्टि रुप श्री दत्तात्रेय का स्वरुप त्रिमुख एवं छ्ह हाथ वाला बतलाया है। इस स्वरुप में पीछे एक गाय और आगे चार कुत्ते रहते हैं। इस स्वरुप का वर्णन ‘गुरुचरित्र’ ग्रंथ में - सरस्वती गंगाधर ने किया है।
पुरुष का गुरु अपनी आत्मा ही है क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान से अपनी आत्मा के ज्ञान से ही पुरुष का कल्याण होता है। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि जिससे जितना-जितना गुण मिला है उनको उन गुणों को प्रदाता मानकर उन्हें अपना गुरु माना है इस प्रकार मेरे 24 गुरु हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, सिंधु, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग, मीन, पिंगला, कुररपक्षी, बालक, कुमारी, सर्प, शरकृत, मकड़ी, भृंगी।
गिरनारक्षेत्र् श्री दत्तात्रेयजी का सिद्धपीठ् है। इनकी चरणपादुकाएँ वाराणसी तथा आबूपर्वत् आदि कई स्थानों पर् हैं।

श्री दत्तात्रेय की साधना (उपासना) विधि

श्री दत्तात्रेय जी की प्रतिमा,चित्र या यंत्र को लाकर लाल कपडे पर स्थापित करने के बाद चन्दन लगाकर,फ़ूल चढाकर,धूप की धूनी देकर,नैवेद्य चढाकर दीपक से आरती उतारकर पूजा की जाती है । पूजा के समय में उनके लिये पहले स्तोत्र को ध्यान से पढा जाता है,फ़िर मन्त्र का जाप किया आता है,उनकी उपासना तुरत प्रभावी हो जाती है,और शीघ्र ही साधक को उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है । साधकों को उनकी उपस्थिति का आभास सुगन्ध के द्वारा,दिव्य प्रकाश के द्वारा,या साक्षात उनके दर्शन से होता है,साधना के समय अचानक स्फ़ूर्ति आना भी उनकी उपस्थिति का आभास देती है। भगवान दत्तात्रेय बडे दयालो और आशुतोष है,वे कहीं भी कभी भी किसी भी भक्त को उनको पुकारने पर सहायता के लिये अपनी शक्ति को भेजते है।

साधना मन्त्र- " ॐ द्रां ह्रीं क्रो दत्तात्रेयाय् विद्‍अमहे योगीश्‍राय् धीमही । तन्‍नो दत्त: प्रचोदयात् ॥"

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